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आज फिर देश एक ऐसे मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है जहा से आगे कैसे जाए आगे का रास्ता क्या हो एक बार फिर से चर्चा परिचर्चा का दौर सुरु हो गया है सुरु हो गया है विचारों का लबादा ओढे बुधिजीविओं का प्रलाप कोई कह रहा है की इसका एक मात्र निदान है की दुबारा इस प्रकार की घटना न हो इस खातिर कड़ी से कड़ी सजा का प्राविधान करना होगा आज दैनिक जागरण के मुख पृष्ठ पर एक स्टोरी आई है जिसका शीर्षक है ” इतिहास भूली सरकार ” जिसके कुछ अंशों का साभार लेकर यहाँ उधृत करना आवश्यक है।
दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद जन आक्रोश सड़कों पर उबल रहा है। 32 साल पहले भी ऐसा हुआ था, जब रंगा और बिल्ला नाम के दो अपराधियों ने एक सैन्य अधिकारी के बच्चों को अगवा कर दुष्कर्म के बाद मार दिया था। उस समय रंगा-बिल्ला की फांसी पर रोक के विरोध में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को स्कूली बच्चों की तीस हजार चिट्ठियां मिली थीं। कोर्ट ने जन भावनाओं का सम्मान कर फांसी पर लगी रोक हटाई थी। इतिहास ने खुद को दोहराया है, लेकिन सरकार भूल गई। वह जन आक्रोश को लाठीचार्ज और अवरोध लगाकर रोक रही है। कमीशन और कमेटियां बनाकर शांत करने की कोशिश कर रही है। अगर यह कोशिश जनता को सुरक्षा देने के लिए की गई होती तो शायद यह जघन्य घटना रुक सकती थी। हर गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति बहादुर बच्चों को संजय चोपड़ा और गीता चोपड़ा पुरस्कार देते हैं। यही वो बहादुर बच्चे थे जिन्होंने अपराधियों से लड़ते हुए जान दे दी। क्या जिस तरह उनकी बहादुरी सिर्फ सम्मान और पुरुस्कार तक सिमट गई, वैसे ही इस अनाम बहादुर युवती का बलिदान भी बेकार चला जाएगा। देश की महिलाओं और बच्चों पर असुरक्षा की तलवार बदस्तूर लटकी रहेगी। जनवरी, 1982 की शाम रंगा के वकील आरके गर्ग और डीके गर्ग को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस मिला जिसमें अगले दिन सुनवाई की सूचना थी। डीके गर्ग बताते हैं कि सुनवाई का नोटिस अचानक आया था इसलिए आश्चर्य हुआ, लेकिन अगले दिन अदालत में आश्चर्य दूर हो गया। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने बताया कि उन्हें देशभर से बच्चों की 30 हजार चिटिठयां मिली हैं, जिनमें अभियुक्तों की फांसी पर रोक के आदेश का विरोध किया गया है। इसके बाद कोर्ट ने संक्षिप्त सुनवाई में राष्ट्रपति के माफी अधिकार पर सवाल उठाने वाली रंगा की याचिका खारिज कर दी।
आगे बढने के लिए शायद रंगा और बिल्ला वाली घटना का इतिहास क्या था इसे दुबारा लिखू इसकी जरूरत नहीं अब बीते दिन अमर उजाला के मुख पृष्ठ पर एक स्टोरी आई थी जिसका शीर्षक था ” राज और जन के बीच कोई पथ नहीं बचा ” जिसके कुछ अंशों का साभार लेकर यहाँ उसे भी उधृत करना आवश्यक है। शहंशाहों के मुंह खुल गए हैं। महारानियों की जुबान जैसे आंख बन गई हैं। इन आंखों से आंसू बनकर फूट रहे हैं। ऐसा लगता है कि जनता के सीने पर इन आंसुओं का गोला फूटकर बह जाएगा। जिन शहंशाहों के मुंह चल पड़े हैं, उनके शब्द कतारों की कतारें लगाकर दिल की गर्मी चुराने को बेताब हैं। जनपथ को राजपथ से इस कदर मिलाया जा रहा है कि राज और जन के बीच कोई पथ ही नहीं बचा है।
इस नए पथ को तैयार रखने के लिए मेट्रो स्टेशन बंद करने पड़ते हैं। तिहरी खाकी वर्दियां तैनात करनी पड़ती हैं। एक बड़ा सा झूठ बोलना पड़ता है। फिर, औलिया की तरह कहा जाता है, ‘उस लड़की का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। यह व्यर्थ और सार्थक की जुबान किसकी है? सत्ता की? सत्ता के इर्द-गिर्द उत्सव मनाते दरबार की या उन लोगों की जो राजधानी के बस स्टैंड पर एक रात फेंक दी गई बच्ची के लिए एक ईमानदार पुलिसिया बयान तक देने से भागते रहे?
यह अचरज की बात है कि नेता-विहीन युवाओं ने स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा के प्रतिकार का नेतृत्व किया। यह और अचरज की बात है कि सत्ता ने उस आक्रोश का प्रत्युत्तर निहायत चालाक संदर्भों के अंबार फेंककर कर दिया।
राजनीतिज्ञों को बड़ा गुमान है कि वे अपने समय और समाज के पहरेदार हैं। वे ही हैं जो संसद चलाते हैं और वे ही हैं जो संसद के जरिए देश को व्यवस्था देने के लिए अधिकृत हैं। जब देश की राजधानी एक जघन्य अपराध के विरुद्ध उबल रही थी, तब वे आंकड़े दे रहे थे। वे बता रहे थे कि पुलिस कमिश्नर के इस्तीफे से कुछ नहीं होगा। वे चौबीस घंटे में पोस्टमार्टम की रिपोर्टें उठाकर ला रहे थे। वे हर घंटे सिर्फ दिल्ली और राजधानी दिल्ली के बीच दो-दो हाथ करने पर तुले थे।
इस सत्ता के पास नैतिक सत्ता नहीं है, इसलिए जो यहां-वहां मंच पर दहाड़ते, रोते, उलझते दिखते रहे हैं, वे इतना भी साहस नहीं कर सकते कि भीड़ उनके कंधे पर सिर रखकर अपना सदमा हल्का कर सके। जब मोमबत्तियां जल रही थीं और सिंगापुर के पहाड़े पढे़ जा रहे थे तब भी देश के अलग-अलग कोनों से स्त्री के विरुद्ध संगीन गुनाहों की खबरें दर खबरें आ रही थीं। तंत्र के प्रति अविश्वास के लिए जैसे यह काफी नहीं था, तंत्र के नियंता सिर्फ रोनी सूरत के फोटो सेशन करवाते रहे। जिम्मेदारी तय करने की बात कौन करे।
साहस समाज के भीतर आना चाहिए। साहस सत्ता को बदल देने और उसके पाखंड को नष्ट कर देने के लिए आना चाहिए। एक दर्दनाक मौत की प्रतीकात्मक स्याही उन चेहरों पर नजर आए तो एक प्रतीक पूरे देश के क्षोभ का उत्तर बने।
एक पाठक ने लिख भेजा है- इसी उम्मीद पर नाटक रचे जाते हैं जीने के कि एक दिन जिंदगी पोरस बनेगी और सिकंदर हम…………………..
वास्तव मे इन दोनों समसामयिक और ज्वलंत लेखों से एक बात तो जरूर निकलकर आती है की कही न कही आम आदमी की पीड़ा जो यदा कदा बाहर निकलकर आती है उस पीड़ा को अभी भी हम समझ नहीं पा रहे और मात्र हम अपने अपने ढंग से उसकी व्याख्या कर रहे जब की यह मात्र एक उस लड़की की पीड़ा नही जो अब हमारे बीच नहीं रही और जिंदगी और मौत की जंग मे मौत को गले लगाने पर मजबूर हुई क्या एक मात्र कानून बनाने से ही इन चीज़ों की रोकथाम हो सकती है मैं तो कहूँगा जी नहीं पहले हम अब जिस माहौल मे रहने के आदी हो रहे उसको बदलने को आगे बढ़ना होगा मुझे आपको सभी को एक साथ जो दूषित माहौल बन गया है क्या हममे आपमे संवेदनशीलता और नैतिकता लेश मात्र भी बची है एक बार तो सही अन्दर झाँक कर तो देखें तो शायद इस माहौल मे हम खुद को भी ठगा सा महसूस करेंगे।
हमे मालूम होना चाहिए की बचपन से लेकर तरुनाई तक हमे जो नैतिकता और संवेदनशीलता का पाठ पढाया गया था वह अगर खोजा जाये तो उसका हममे दूर तक पता नहीं मिलेगा हमने नैतिकता और संवेदनशीलता को अगर अपने भीतर संजो कर रखा है तो वह शायद अपने परिवार और बच्चों तक ही सीमित है या अपने जरूरत के हिसाब से हम उसको बनाते और बिगाड़ते रहते हैं जिसमे केवल और केवल हमारा भला ही निहित हो।
आखिर ऐसा कब तक अभी तो यह बानगी है आगे आगे देखिये होता है क्या जो नै पीढ़ी आ रही है उससे तो आगे उम्मीद करना भी मत क्यों की उनका अपने आस पास घटने वाली इस प्रकार की घटनाओं से कोई लेना देना नहीं होने वाला और तो और हम आप कुछ न कुछ सुधि भी ले लेते हैं उनको इसकी परवाह नहीं जब तक की उनके साथ ऐसा जब तक घटित न हो कानून बनाने से कुछ नहीं होता बनाना है तो अपने जीवन मे नैतिकता और संवेदनशीलता को बनाये और बढाए उसे बांटे खुद को प्रेरित करें फिर दूसरों से अपेछा करें।
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